इन ऊंच नीच के झगड़ों में, यहाँ किसने क्या पाया है।
पूरी दुनिया फ़तेह कर भी, वो सिकंदर यहीं समाया है।
किशोर मुहा नास्तिकता से, दूर रखे मंदिर-मस्जिद है।
मत कर गुरुर इस, गुलाब तन और चाँद चेहरे पर।
काले घनघोर ग्रहण ने भी, उसे इक दिन छुपाया है।
कुम्हार कला के गुरुर में, घडी घड़े वो रोज मढ़े।
माटी हंसे कहे उसे, मेरी वजह से तेरी काया है।
मुझ फ़कीर को क्या गम, नानक-नानक मेरा है।
रंग रूप का फरक कर के, जो तूने ठुकराया है।
वक्त का फेर भी देख, आया कैसा परिवर्तन है।
घुटनों चलाकर तुझको, आज तुझे फिर लाया है।
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