कुछ कसूर उसका भी था, कुछ कसूर मेरा भी था,
कुछ मजबूर वो भी था, तो कुछ मजबूर मैं भी था..
इल्जाम का सिल-सिला दोनों और बराबर रहा...
पर बेक़सूर वो भी था, और बेकसूर मैं भी था...
फूल लिए खड़ा था, वो माजर पर मेरी,
वो हुस्न के गुरुर में था, दफ़न-ए-गुरुर मैं भी था...
रख कर चले गए वो, गुल-दान मेरी कबर के बाहर,
बस कुछ कदम दूर वो भी था, और कुछ कदम दूर मैं भी था...
कुछ मजबूर वो भी था, तो कुछ मजबूर मैं भी था..
इल्जाम का सिल-सिला दोनों और बराबर रहा...
पर बेक़सूर वो भी था, और बेकसूर मैं भी था...
फूल लिए खड़ा था, वो माजर पर मेरी,
वो हुस्न के गुरुर में था, दफ़न-ए-गुरुर मैं भी था...
रख कर चले गए वो, गुल-दान मेरी कबर के बाहर,
बस कुछ कदम दूर वो भी था, और कुछ कदम दूर मैं भी था...
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